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कविता

हकलाया कई बार

मत्स्येंद्र शुक्ल



चोट खाए शब्‍द
नभांगन के छतनार वृक्ष को छूते
उतर आए नेत्र के सामने आवेशित
सर्प-चाम-रंग में फिसलता अ-चेत आकाश
आकृति बे-डौल
पीली मिट्टी काले धब्‍बों बैगनी किरनों से पीड़ित
कोलाहल रहित सूक्ष्म वृत्त
आतंकित पुतलियों की रक्षा में व्‍यस्‍त
धारदार औजार उठाए
कई जन दौड़ रहे नदी के स्‍कंध पर
चींटे को मुँह में लपेटे छिपकली
कूद पड़ी बालू के रेशेदार हिंडोले में
तड़फड़ाती चिड़िया शब्‍दों का अपमान देख
गूँगा व्‍यक्ति जो शब्‍द की महिमा विधिवत समझता
हकलाया कई बार गंभीर मुद्रा में
कि शब्‍दों को धोखा देना संसद के हित में नहीं है


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